Home गेस्ट ब्लॉग 48 हजार झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश देने वाला कलंकित सुप्रीम कोर्ट जज अरूण मिश्रा

48 हजार झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश देने वाला कलंकित सुप्रीम कोर्ट जज अरूण मिश्रा

17 second read
0
0
554

सुप्रीम कोर्ट का जज अरूण मिश्रा अपने सेवानिवृति के ठीक पहले दिल्ली के 48 हजार झुग्गी-झोपड़ी को उजाड़ने का आदेश देकर अपना बदशक्ल चेहरा देश के सामने दिखा कर जनता के पैसों पर ऐश करने निकल पड़ा है. इसके साथ ही अरूण मिश्रा देश के न्यायिक इतिहास का सबसे बदनुमा कलंक बन गया है, जिसने खुद को देश की जनता और देश के संविधान से भी ऊपर साबित करने का घृणित कार्य किया है. देश की जनता सुप्रीम कोर्ट के इस कलंक से तो किसी तरह निपट लेगा, परन्तु, अरूण मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट के चेहरे पर जो बदनुमा दाग लगाया है, वह कभी नहीं धुल सकेगा.

देश का इतिहास याद रखेगा कि अपनी जमीर बचाने के लिए जस्टिस लोया ने अपनी जान दे दी थी, और संघी टुकड़ों पर पलने वाले जस्टिस अरूण मि ने चंद टुकड़ों के लिए अपना जमीर बेच कर देश के लाखों गरीब लोगों की जिन्दगी को आंसुओं में डुबा दिया. घृणास्पद जस्टिस अरूण मिर अपने घिनौने कार्य के लिए देश के इतिहास में कालिख के बतौर सदैव याद रखा जायेगा. सिद्धार्थ रामू की रिपोर्ट.

48 हजार झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश देने वाला कलंकित सुप्रीम कोर्ट जज अरूण मिश्रा

क्या हमें इनके साथ खड़ा नहीं होना चाहिए ? क्या ये हमारे अपने लोग नहीं हैं ? क्या ये पराए हैं ? संदर्भ दिल्ली के 48 हजार झुग्गियों / घरों को 3 महीने के अंदर उजाड़ने का सुप्रीकोर्ट का आदेश. अरूण मिश्रा के नेतृत्व वाली 3 जजों की पीठ ने दिल्ली में 70 किलोमीटर के दायरे की रेलवे पटरियों के आस-पास बसी झुग्गी झोपडियों को 3 महीने के अंदर उजाड़ देने का आदेश दिया है.

मिश्रा जी ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि राजनीतिक दल इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते, न तो किसी अन्य तरीके से इसमें बाधा डाली जानी चाहिए. इतना ही नहीं मिश्रा जी ने अपने आदेश में यह भी कहा कि कोई कोर्ट इस पर स्टे नहीं दे सकती है और यदि देती है, तो मान्य नहीं होगा.

मिश्रा जी अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर अपने साथी जजों के साथ करीब 2 से ढाई लाख लोगों को बेघर करने का आदेश देकर, स्वयं सेवानिवृत होकर अपने आरामदायक आवास में या फार्म हाउस में आराम फरमाने चले गए. हो सकता है, वे कल राज्य सभा के सदस्य नामित हो जाए या किसी ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष.

मिश्रा जी और उनके साथी जजों को तो शायद यह भी नहीं पता होगा कि बाल-बच्चों के साथ बेघर होकर दर-दर की ठोकर खाना क्या होता है ?
बहुतों के लिए यह बांस-प्लास्टिक या ईंट-पत्थर से बनी झुग्गी होगी, जिसे घर नहीं कह सकते, लेकिन नहीं दोस्तों लाखों लोगों के लिए वही उनका घर है. उनकी प्यारी बेटी मुनिया या फातिमा उसी घर में रहती है. उसी में अभी-अभी पैदा हुए बेटा किलकारी मार रहा है. उसी में किसी कि बूढ़ी मां आराम फरमा रही है और बूढ़ा बाप अंतिम दिन गिन रहा है. वहीं जवान बेटी और बहू के लिए परदे की दीवार है.

यह झुग्गी ही वह जगह है, जहां दिन भर खटकर वे रात को आराम करते हैं. यह वह जगह जहां वे दिल्ली के अमीरों और मध्यवर्ग की तरह-तरह की टहल बजाकर आते हैं और चंद घंटे नींद लेकर खुद को तरो-ताजा करते हैं और अगले दिन फिर खटने निकल पड़ते हैं. यह वही जगह है जहां वे अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य का सपना देखते हैं और अपने बेटे-बेटियों को हाड़-तोड़ परिश्रम करके भी पढ़ने भेजते हैं.

अरूण मिश्र जी के नेतृत्व में 31 अगस्त को यह फरमान आया है कि अब इनके सपनों का घरौंदा तीन महीने के अंदर तोड़ दिया जाए और इन्हें इनकी हालात पर मरने-जीने के लिए छोड़ दिया जाए. आइए, देखते हैं कि आखिर ये कौन लोग हैं ?

ये वे लोग हैं, जो देश के कोने-कोने से पेट की भूख मिटाने के लिए रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए. ये हाड़-तोड़ परिश्रम करने वाले लोग हैं, करीब-करीब पूरा परिवार कोई न कोई काम करता है. पुरूष मजदूरी या अन्य सेवा कार्य करते हैं, कुछ स्वरोजागर भी करते हैं, कुछ लेबर चौक पर रोज खुद को बेचने के लिए खड़े होते हैं, महिलाएं मध्य वर्ग के घरों में झाडू-पोछा लगाती हैं या खाना बनाती है या कूड़ा बिनती है या अन्य बहुत सारे अन्य छोटे-मोटे काम करती हैं.

ये देश की सबसे मेहनती लोग हैं, लेकिन ज्यादातर अशिक्षित हैं और अकुशल मजदूर हैं. इन्हें इनकी मेहनत के बदले में इतना भी नहीं मिलता कि वे किराए का घर लेकर रह सके. बहुतों को प्रतिदिन काम भी नहीं मिलता. कई बार लेबर चौराहे से बिना बिके वापस चले आते हैं.

कोरोना के इस आर्थिक संकटकाल और भयानक बेरोजागारी के दौर में कई सारे परिवार सरकारी सस्ते या मुफ्त के अनाज पर किसी तरह जिंदा है.
इनका बड़ा हिस्सा ( करीब 40 प्रतिशत से अधिक) बिहार से पलायन करके आया. कुछ तो पीढ़ियों पहले आ गए हैं और उनका बिहार में कुछ भी नहीं है, न घर न खेती, न झोपड़ी. देश के अन्य कोनों के भी लोग हैं.

जहां आर्थिक समूह के तौर पर ये देश के सबसे गरीब लोग हैं, वहीं सामाजिक समूह के तौर अधिकांश दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं. नंदलाल यादव हैं, तो अकबर अली भी हैं, सुमन( दलित) है, तो फातिमा भी है. बिना कुछ सोचे कि ये कहां जाएंगे और क्या करेंगे ? खासकर इस कोरोना काल में अरूण मिश्रा ने यह फैसला सुना दिया कि इन्हें हर कीमत पर तीन महीने के अंदर उजाड़ों.

मित्रों, यह उनके लिए केवल रहने की जगह नहीं है, बल्कि यहीं रहकर अपने जीविकोपार्जन का साधन भी जुटाते हैं. उनके आवासों को उजाड़ने का मतलब उन्हें उनके रोज़गार से विहीन कर देना यानि उनसे उनके रहने की जगह और रोटी का साधन दोनों छीन लेना. क्या हमें सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का पुरजोर विरोध नहीं करना चाहिए ? क्या सर्वोच्च न्यायालय जनता- संसद से ऊपर है ? क्या संसद सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बदल नहीं सकती है ?

क्या सर्वोच्च न्यायालय संविधान से ऊपर है ? उन्हें 3 महीने के अंदर उजाड़ने का आदेश संविधान के अनुच्छेद 21 में उल्लिखित जीवन के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है ?

भारतीय संविधान कहता है कि इस देश में जनता ही संप्रभु (अंतिम निर्णायक ताकत है), यदि ऐसा है, तो राजनीतिक दलों और जनता को इस निर्णय के विरोध में खड़े होने से रोकने का सुप्रीमकोर्ट का आदेश, जनसंप्रभुता का उल्लंघन नहीं है ?

संसद का वर्षाकालीन सत्र शुरू होने वाला है, क्या उसमें प्रस्ताव पास करके सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को उसी तरह पलट नहीं दिया दिया जाना चाहिए ? जैसे एससी-एसटी एक्ट और अन्य मामलों पर पलट दिया गया था ?
कहां हैं मोदी जी, जिन्होंने सबसे के लिए आवास का वादा किया था ? कहां हैं केजरीवाल जिन्होंने नारा दिया था कि जहां झुग्गी वहीं, मकान ?

क्या सभी राजनीतिक दलों को मानवीय आपदा के इस घड़ी में ढाई लाख झुग्गीवासियों के साथ नहीं खड़ा होना चाहिए ? क्या सभी लिबरल, वामपंथी और बहुजन-दलित संगठनों को सुप्रीकोर्ट के आदेश से पैदा हुए इस त्रासद मानवीय संकट में झुग्गीवासियों का साथ नहीं देना चाहिए ? यदि इन्हें या इनमें से कुछ को हटाना किसी कारण अत्यन्त जरूरी है तो क्या इन्हें वैकल्पिक आवास नहीं उपलब्ध कराया जाना चाहिए ?

दिल्ली में राजीव आवास योजना के तहत बने करीब 50 हजार आवास खाली हैं और दिल्ली विकास प्राधिकारण के अन्य आवास भी खाली हैं, क्या इन लोगों को यह आवास उजाडने से पहले एलॉट नहीं करना चाहिए ? क्या किसी को भी उजाड़ने का आदेश देते समय, सबसे पहले उसे बसाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ?

इतिहास का अनुभव यह बताता है कि सुप्रीमकोर्ट के आदेश को तभी रोका या पलटा जा सकता है, जब व्यापक जनता सड़कों पर उतर आए, नेताओं का घेराव करे, पार्टियों के दफ्तरों को घेरे, संसद भवन को घेरे और सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे पर भी अपनी पूरी ताकत के साथ दस्तक दे.

क्या हम सभी जनपक्षधर लोगों को जिस तरह से संभव सके, इन झुग्गी वालों के साथ नहीं खड़ा होना चाहिए ? यह हमारे अपने लोग हैं, ये इसी देश के वासी हैं, भारत मां के ही बेट-बेटियां हैं, किसी अन्य ग्रह से नहीं आए. बस इनका अपराध सिर्फ इतना है कि यह गरीब हैं, सामाजिक तौर अधिकांश ऐतिहासिक तौर पर वंचित तबकों के हैं और मेहनतकश है.

क्या हमें अपनी पूरी ताकत से इन मूक लोगों की आवाज नहीं बनना चाहिए ? मिश्रा जी के आदेश से पैदा हुए महाविपत्ती की इस खड़ी में इनके साथ नहीं खड़ा होना चाहिए ?

ऐसा तो नहीं है कि अरूण मिश्रा जी और उनके साथी जज इन जमीनों को खाली कर कार्पोरेट घरानों को इन जमीनों कौ सौंपने का रास्ता तो नहीं साफ कर रहे हैं ? और ऐसा हुआ है, इतिहास इसका गवाह है. अंदरखाने यह भी हो सकता है कि यह सबकुछ शासकों की मिलीभगत से हो रहा है और सुप्रीमकोर्ट का आड़ लिया जा रहा हो, ताकि आसानी से इन जमीनों को अडानी-अंबानी को सौंपा जा सके.

मेरी आप सब से अपील है कि झुग्गीवासियों के घर और जीविकापार्जन के साधनों को बचाने में उनका जरूर साथ दें. महाविपत्ति की घड़ी में झुग्गीवासियों के साथ खड़े हों.

Read Also –

मोदी सरकार की अगुवाई में पूंजीपतियों के लूट में बराबर के साझीदार दैनिक भास्कर का पतन
कड़े निर्णय के चक्कर में देश को गर्त में पहुंचा दिया मोदी ने ?
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों को एक भारतीय का खुला पत्र
जस्टिस लोया पार्ट-2: मौतों के साये में भारत का न्यायालय और न्यायपालिका
सुप्रीम कोर्ट : न च दैन्यम, न पलायनम !
न्यायिक संस्था नहीं, सरकार का हथियार बन गया है सुप्रीम कोर्ट
प्रशांत भूषण प्रकरण : नागरिक आजादी का अंतरिक्ष बनाम अवमानना का उपग्रह
प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …