सुनते हैं पहले कभी एक तुग़लक़ हुआ था. पर क्या उसने दुबारा ना होने की कसम खाई थी ? कहते हैं इतिहास का दोहराया जाना विडम्बना होती है. मगर यहां तो विडम्बना से ज्यादा है. ये 21वीं सदी है, तकनीक और विज्ञान की सदी तो शासकों के दिमाग भी उसी तरह और ज्यादा जटिल हुए हैं. उनकी योजनाएं भी पहले के मुकाबले ज्यादा जटिल, दूरंदेशी की जगह षड्यंत्रों से, दुरभिसंधियों से भरी होती चली गयी हैं.
पिछले एक माह ज्यादा से रास्तों में, प्रवासों में, घरों से बाहर फंसे हुए लोग गुहार लगा रहे हैं कि हमें अपने घर ठिकानों को जाने दिया जाय. लोग पैदल ही चल दिये हजारों किलोमीटर की दूरी मापने. रास्तों में मरते रहे भूख से, रास्तों में लोगों के दम तोड़ देने की खबरें आती रही. साइकिलों से जाने की, स्कूटरों, रिक्शा से परिवार सहित निकल गए लोगों की, निकल जाने और फिर रास्तों में ही मरने की खबरों का सिलसिला रहा लगातार.
इस चिंता को लेकर लोग कोर्ट में गए तो केंद्र सरकार ने मना कर दिया. राज्य सरकारों ने कहा कि उनके पास अपने राज्य के लोगों के फंसे होने के चलते रोज प्रार्थनाएं आ रही हैं. इन प्रवासियों का हल निकालिये. दो दिन पहले कोर्ट में मुकरने वाली सरकार आनन-फानन में एक आदेश निकालती है कि प्रवासियों को अपने-अपने राज्य जाने दिया जाय लेकिन इसकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी. वही इन्हें लाने, ले जाने की व्यवस्था करें. बसों का इंतजाम करें. एक हजार डेढ़ हजार किलोमीटर और वह भी बसों से ! उस पर सोशल डिस्टेनसिंग की बाध्यता अलग से. और ये कोई हजार दो हजार प्रवासियों के लिए नहीं लाखों प्रवासियों के लिए कहा गया.
50 से 60 सीटर क्षमता वाली कितनी बसें चाहिए होंगी लाखों लोगों के लिए ? कितना तेल, मानव संसाधन लगेगा ? कितने फेरे लगेंगे ? ऊपर से आर्थिक भार भी राज्य खुद ही देखें, जिनकी पहले ही मांग है कि जीएसटी की क्षतिपूर्ति का उनका करोड़ों रूपये तो पहले दे दो.
राज्यों के आर्थिक संसाधन पहले ही सीमित हैं, ऊपर से यह महामारी की मार. मुख्यमंत्री आर्थिक तंगी की शिकायत प्रधानमंत्री के साथ हुई वीडियो बैठक में कर चुके हैं. बसों के जरिये हजारों किलोमीटर की यात्रा में कितने ही पड़ाव पर रुकना होगा. लोग उतरेंगे, किन्हीं जगहों पर जरूरतों के लिये रुकेंगे और संक्रमण का खतरा मोल लेंगे जबकि इस सबका आसान तरीका होता कि 5-7 दिन के लिए रेल व हवाई सेवा शुरू की जाती, जिसकी मांग मुख्यमंत्री कर भी रहे हैं.
किंतु जहां योजना की जगह षड्यंत्र पर ज्यादा ध्यान हो तो क्या उम्मीद ! लाकडाउन का इस्तेमाल अपने विरोधियों, आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने के लिए किया जा रहा हो, तब यही होगा. सीएए विरोधी आंदोलनकारियों को ठिकाने लगाने में ही सारे लाकडाउन का उपयोग होगा, तब योजना ऐसी ही बनेगी.
दिल्ली में नए संसद भवन और प्रधानमंत्री निवास को बनाने के लिये 20 हजार करोड़ खर्च करने के लिए पैसा है, क्यों जरूरत है इस समय नए त्रिकोणीय संसद भवन की ? प्रधानमंत्री निवास को राजपथ के निकट लाने की क्या आवश्यकता है इस समय, जिसमें अंडरग्राउंड मेट्रो सिर्फ प्रधानमंत्री के उपयोग के लिए बनेगी ?
देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है. आम लोगों के रोजगार खत्म हो रहे हैं. करोड़ों भूख की गर्त में धकेल दिए गए हैं. देश के तमाम समझदार लोगों ने इस विष्ठा प्रोजेक्ट पर रोक लगाने की मांग की किन्तु अपने एक चहेते को आपने ठेका भी दे दिया. सुनने में आता है कि उस टेंडर प्रक्रिया में भी तमाम घपला घोटाला है. क्यों है ये योजनाओं में शाह खर्ची ? क्या यह तुगलकी नजरिया मात्र है ? नहीं, यह जनता के खिलाफ षड्यंत्री नजरिया है, जिसमें सिर्फ अपने ख्वाब अपने निशां इतिहास में छोड़ने की खब्त सवार है.
‘मैंने अपने समय मे नोट बदले. ‘ये मेरे काल में चले रुपये हैं.’ ‘यह मूर्ति ऐतिहासिक ऊंचाई की मेरे काल में बनी.’ जब ऐतिहासिक बेरोजगारी थी देश में. ‘मेरे काल में नई संसद बनी … ये देखो इस पर गुदा हुआ मेरा नाम’ ‘मेरे निशान, ये मेरा इतिहास है.’ ‘हां लोग भूखे मरे पर वह तो उनका त्याग था देश के लिए.’
इसे सिर्फ मूर्खता के खाते में नहीं डाला जा सकता. न ही यह सनक और मसखरेपने के खाते में डाल माफ कर दिए जाने के लिए है, इसमें तुगलकी ऐतिहासिक गति है. यह शुद्ध आपराधिक षड्यंत्र हैं, जो इससे पहले देश ने शायद ही इस पैमाने पर देखे हों. अंग्रेजों के समय बंगाल के अकाल से ही इसकी तुलना हो सकती है. तब भी अनाज की बहुतायत के बावजूद लोग मरे और अंग्रेज अपनी अय्याशी में रहे. पर वे अंग्रेज थे विदेशी, यह स्वदेशी है, शुद्ध मेड इन इंडिया विध फ्लेवर ऑफ हिंदुइज्म, इन सनातनी स्टाईल.
अर्थशास्त्री कह रहे हैं, दुनिया की नामी रेटिंग एजेंसी कह रही हैं कि आर्थिक मंदी है. नोटबन्दी और जीएसटी की मार से पहले ही धराशायी अर्थव्यवस्था, महामारी के कहर से पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है. विकास दर शून्य में जाने की बात है, किंतु हम नहीं स्वीकारेंगे. उससे होगा कुछ नहीं सिर्फ इतना होगा कि आप मानेंगे नहीं तो तत्सम्बन्धी उपाय भी नहीं करेंगे, जिससे देश भयावह संकट में धकेल दिया जाएगा.
एक तरफ देश के कर्मचारियों की तनख्वाह में, भत्तों में कमी की जा रही है. जनता पर आर्थिक पाबंदियां आयद की जा रही हैं, किंतु अपने उद्योगपति मित्रों का हजारों करोड़ रुपया बट्टे खाते में डाल दिया जा रहा है. और उसकी जानकारी भी संसद में देने के बजाय, लोगों को आरटीआई में मांगनी पड़ रही है.
तब पता चल रहा है गरीबों मेहनतकशों की खून पसीने की कमाई के 68,607 करोड़ रुपये अपने ‘मेहुल भाई’ जैसे लोगों को देकर पहले तो देश से चलता कर दिया और फिर वो रकम बट्टे में डाल दिया और वसूली का दिखावा करते रहा. फिर जनता वैसे भी भुलक्कड़ है और फिर ब्रह्मास्त्र तो है ही – हिन्दु मुस्लिम बांट और निष्कंटक राज.
पहला तुगलक जहां परिस्थितियों की उपज था, हमारे समय का तुगलक अपने षड्यंत्री मनसूबों के हित उन परिस्थितियों को पैदा कर उस ऐतिहासिक नमूने की प्रतिकृति की छाया में छुपता बौना, दु:खवाद से ग्रस्त कुटिल क्रूर सिंह है.
- अतुल सती जोशीमठ
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