Home गेस्ट ब्लॉग कब तक संविधान और लोकतंत्र का गला रेते जाते देखते रहेंगे ?

कब तक संविधान और लोकतंत्र का गला रेते जाते देखते रहेंगे ?

11 second read
0
0
633

कब तक संविधान और लोकतंत्र का गला रेते जाते देखते रहेंगे ?

हर किसी को कोविड 19 के नाम पर घरों में कैद रहने का सरकारी आदेश है, अन्यथा पुलिस के डंडे तो अपना काम करने के लिए मुस्तैदी से तैयार ही हैं.

भारत आज अजीब संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है. राजसत्ता की क्रुरता का तांडव नृत्य पूरे जोश-खरोश से चल रहा है, और अंधभक्त मोदी के जयकारे के साथ बेताल की ताल पर नाचते हुए जश्न मना रहे हैं. राजसत्ता की इस पैशाचिक खेल में हर वह भारतीय शामिल है, जिसने अपनी बुद्धि, विवेक,तर्क, जमीर और मानवीय संवेदनाओं को राजसत्ता के हाथों हमेशा के लिए गिरवी रख दिया है.

एक अजीब-सी अकुलाहट और चुप्पी है. लगता है यह देश हिजड़ों या मुर्दों का है. राजसत्ता के दमन-चक्र के आगे कुछेक अपवादों को छोड़कर पूरा मध्यमवर्ग नतमस्तक हो चारण-भांट बन गया है. आजतक जिन मानवीय मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकता और संवेदनाओं के लिए दहाड़ता रहा था, जनप्रतिबद्धता और जनसमस्याओं की बात-बात पर दुहाई देता था, और अपने संविधान, लोकतंत्र, न्यायपालिका, समाचारपत्र और मिडिया, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार, नागरिक अधिकारों, संविधान में वर्णित मूल अधिकारों, समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना और विचारों की अभिव्यक्ति को राष्ट्र की अमूल्य धरोहर मानता था, आज इन सबको तार-तार होते हुए देखकर भी मौन साधना में लीन है.

न्यायपालिका सहित सारी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, मर्यादा और प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया गया है. सारी स्वायत्त संस्थाएं राज्य की कार्यपालिका शक्ति की चेरी बन उसकी उंगलियों पर नाचने के लिए मजबूर हैं. इंदिरा गांधी के आपातकाल को तानाशाही का सबसे घृणित रूप मानने वाले सुधीजनों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं को न जाने कौन-सा सांप सूंघ गया है कि वे विरोध में अपनी आवाज उठाने के लायक भी नहीं रहे.

बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम की जिंदगी के साथ जिस तरीके से खिलवाड़ किया जा रहा है, वह भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा. शोषितों, दलितों, पिछड़े, अतिपिछड़े, और आदिवासियों पर जो दमन-चक्र चल रहा है, वह हमे हजारों साल पूर्व के वर्णाश्रम धर्म और मनुवादी व्यवस्था की याद दिलाता है.

जनजातीय समुदाय को जिस तरह अपमानित, उत्पीड़ित, बहिष्कृत, विस्थापित और हासियाकृत किया जा रहा है, वह हमें चंगेज, हलाकु, तैमूर, नादिरशाह, लार्ड राबर्ट क्लाइव की पुनरावृत्ति लग रही है. जनसत्ता और जनशक्ति के सुदृढ़ीकरण हेतु जनसंघर्ष और जनांदोलन करने वाले संगठनों, व्यक्तियों और संस्थाओं को मटियामेट करने के लिए सरकार कमर कस चुकी है.

धर्मनिरपेक्षतावादी और मानवाधिकारवादियों को विशेष रूप से लक्षित किया जा रहा है. उन्हें या तो जेल की सलाखों में कैद किया जा रहा है, या फिर हमेशा के लिए खत्म किया जा रहा है. आज भी सैंकड़ों मानवाधिकारवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी बिना किसी गुनाह के जेलों में सड़ रहे हैं, कोई इनकी खोज-खबर लेने वाला नहीं है, और न न्यायपालिका ही उन्हें जमानत पर रिहा कर रही है.

दमन का एक अजीब-सा माहौल बनाया गया है, जिसमें सभी आतंकित और आशंकित हैं. सुधा भारद्वाज, सोमा चौधरी, तेलतुंबडे, वरवरा राव जैसे अनेकों लोग गरीबों और आदिवासियों का हितैषी होने के आरोप में जेलों में बिना किसी सुनवाई के कैद हैं.

फिर भी देश में श्मशान की शांति छाई हुई है. कहीं कोई स्पंदन नहीं. कहीं कोई शोरगुल नहीं. कहीं कोई विरोध में आवाज नहीं. कोई धरना और प्रदर्शन नहीं, कोई हड़ताल नहीं, और न ही कोई जुलूस ही निकल रहा है. हर किसी को कोविड 19 के नाम पर घरों में कैद रहने का सरकारी आदेश है, अन्यथा पुलिस के डंडे तो अपना काम करने के लिए मुस्तैदी से तैयार ही हैं.

किसानों, मजदूरों और बेरोजगार युवाओं की हालत तो पुछिए ही नहीं. उनके पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई भी विकल्प शेष नहीं रह गया है. अपराधियों, बलात्कारियों, कालाबाजारियों, भ्रष्टाचारियों, व्याभिचारियों, गुंडों, लंपटों और मवालियों को मनमानी करने की पूरी छूट दे दी गई है, जो पुलिस की मिलीभगत से आतंक का राज कायम किए हुए हैं. कोरोना संकट में भी पूंजीपतियों को देश के संसाधनों को लूटने की पूरी और खुली छूट मिली हुई है.

पूरे देश में सिर्फ एक ही व्यक्ति है, जिसे परमब्रह्म और विष्णु के अवतार के रूप में प्रक्षेपित और प्रतिष्ठापित किया जा रहा है, जिसके लिए कारपोरेट घरानों की आवारा पूंजी और सरकार नियंत्रित मिडिया और समाचारपत्र समूहों द्वारा रात-दिन प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. देश के सामने आने वाली संकटों के संबंध में सरकार की कोई भी जिम्मेदारी नहीं है. वह दायित्वबोध से परे सिर्फ पूंजीपतियों की सेवा में लगी हुई है.

सरकार के खिलाफ आवाज उठाने, आलोचना करने, आंदोलन, हड़ताल करने और विचारों की अभिव्यक्ति के हर अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं. जनता को भेंड़-बकरी की तरह मान लिया गया है, जो सिर्फ मिमिया सकती है, सिंग नहीं मार सकती. उद्योग, कल-कारखाने, कंपनियां, बाजार, दुकानें, माल, सिनेमा, खेलकूद, शिक्षण संस्थान सभी बंद हैं, पर पूंजीपतियों द्वारा देश लूटने की योजना चल रही है. क्या यही संघ का रामराज्य और हिंदुत्व है ?

क्या इसी आजादी, लोकतंत्र और संविधान के लिए हमारे पुर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी ? आखिर हम कबतक संविधान और लोकतंत्र का गला रेते जाते देखते रहेंगे ? क्या जनता के रूप में हमारा कोई फर्ज नहीं है ? बहुत हुआ, अब जगना ही पड़ेगा, और कोई भी विकल्प शेष नहीं रह गया है.

  • राम अयोध्या सिंह

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…