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ग्लेनमार्क के COVID-19 ड्रग फेविपिरवीर : भारत के मरीजों पर गिनीपिग की तरह ट्रायल तो नहीं ?

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ग्लेनमार्क के COVID-19 ड्रग फेविपिरवीर : भारत के मरीजों पर गिनीपिग की तरह ट्रायल तो नहीं ?

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

ग्लेनमार्क ने COVID-19 ड्रग फेविपिरवीर को 103 रुपये प्रति टैबलेट के दर के साथ लॉन्च कर दिया है अर्थात ये बाज़ार में बिक्री के लिये उतार दी गयी है. इसका परिक्षण कब हुआ और इसने अनुमति के लिये सरकार को कब एप्लिकेशन दी, इसके बारे में किसी को पता हो तो मुझे जरूर बताये ?

ग्लेनमार्क द्वारा 34 टैबलेट की एक स्ट्रिप 3500 रुपये के अधिकतम खुदरा मूल्य पर 200 mg टैबलेट के रूप में बेचीं जायेगी. लेकिन ये भी ध्यान रखे कि ग्लेनमार्क द्वारा पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि इस दवा का कोई भी साइड इफेक्ट होने पर अथवा मरीज की जान जाने पर दवा कम्पनी जिम्मेदार नहीं होगी. अर्थात अगर मरीज ये दवा लेता है और उसकी जान चली जाती है तो ये मरीज की अपनी जिम्मेदारी होगी. अतः कोई भी कोरोना मरीज पुरे होशोहवास में अपनी जिम्मेदारी पर दवा लेना चाहे तो ही डॉक्टर से उक्त दवा लिखवाये.

ये जो उपरोक्त दवा का अचानक प्रचार कर उसे चमत्कार की तरह पेश किया जा रहा है, उसमें मुझे दो बातें खटक रही है. पहली तो ये कि अगर ये दवा वास्तव में रिसर्च करके ट्रायल इत्यादि प्रोसीजर पूरा करने के बाद मान्य की गयी है तो कम्पनी ने ये क्यों कहा कि दवा की वजह से होने वाले साइड इफेक्ट या जान जाने पर दवा कम्पनी जिम्मेदार नहीं होगी ? क्यों सरकार ने बिना किसी प्रोसीजर या छानबीन के आनन-फानन में इस दवा को अप्रूव कर दिया ?

मुझे लगता है कि इसकी गहनता से जांंच होनी चाहिये क्योंकि हो सकता है कि भ्रष्ट नेता और प्रशासनिक कर्मचारी द्वारा दवा कम्पनी से घुस खाकर एक एक्सपेरिमेंटल दवा को अप्रूव कर दिया गया हो ?

ज्ञात रहे कि कोई भी डॉक्टर या आप-हम ये नहीं कह सकते हैं कि ये दवा उक्त रोग में कारगर है क्योंकि दवा एक रासायनिक नाम के साथ बाजार में उतारी जाती है जो संबंधित रोग की तरफ इशारा करती है. मगर अंदर जो सॉल्ट है वो उस रोग में कारगर है या नहीं या नहीं, इसका पता या तो सिर्फ कम्पनी को होता है या फिर सरकार की उस इकाई (डीसीजीआई) को होता है जो उस कम्पनी की दवा को संबंधित रोग के लिये अप्रूव करती है. बाकी नार्मल डॉक्टर और एमआर से लेकर दवा विक्रेताओं तक सब वो ही भाषा बोलेंगे जो उन्हें बताई जाती है. अगर कोई इसके बारे में जान लेता है तो या तो उसे स्कीम या घुस के रूप में एक निश्चित हिस्सा जाता है अथवा उसे हमेशा के लिये जज लोया बना दिया जाता है.

मुझे ऐसा भी लगता है कि ये खेल बहुत बड़ा है और इसे बड़े लेबल के लोगों के सहारे खेला जा रहा है क्योंकि खुद कम्पनी के हिसाब से ही उक्त कम्पनी ने इस दवा का ट्रायल अब तक सिर्फ 150 लोगों पर किया है जिसमें 90 ‘माइनर लक्षण वाले’ और 60 मध्यम लक्षण वाले लोग थे.

कम्पनी ने ये भी स्पष्ट रूप से कहा है कि ये दवा किसी भी गंभीर स्थिति वाले मरीज (एक्टिवेट वायरस वाले पेशेंट) पर कारगर नहीं है अर्थात किसी भी एक्टिवेट वायरस वाले पर ये दवा काम नहीं करेगी बल्कि सिर्फ प्राइमरी स्तर वाले मरीज पर ही काम करेगी. अर्थात जो मरीज संक्रमण फैला सकता है उसे तो इसका कोई फायदा मिलेगा नहीं उल्टा उसके साथ साथ ये दवा भी प्राइमरी मरीजों के लिये खतरा बनी रहेगी !

एक बात और अच्छे से समझ ले जो खुद कम्पनी ने उजागर की है कि ये दवा कोरोना का इलाज नहीं है बल्कि कोरोना वायरस को कोशिका में अपनी कॉपी बनाने से रोकती है. अर्थात जिन लोगों की इम्युनिटी और वायरस में संघर्ष चल रहा होता है उसी दौरान यह दवा असर करेगी उसके पहले और बाद में नहीं.

ऐसी संघर्षकालीन स्थिति का पता बहुत ही उच्चस्तर की अस्पतालों में और लैबों में लगाया जा सकता है, जिसकी सुविधा कुछ चुनिंदा और बहुत ज्यादा महंगे अस्पतालों को छोड़कर पुरे भारत में उपलब्ध नहीं होगी (भारत के मेडिकल संसाधनों की स्थिति आप सबसे छुपी नहीं है) तो मुझे ये समझ नहीं आया कि इसे मान्यता देने की सरकार को इतनी जल्दी क्या थी ?

कहीं भारत के मरीजों को गिनीपिग की तरह दवा के ट्रायल के लिये तो इस्तेमाल नहीं किया जा रहा ? दूसरी बात सरकार ने इसको मंजूरी भी दे दी मगर मिडिया के उन भांड एंकरों को खबर तक नहीं लगी और न ही उन्होंने इस पर कोई कवर स्टोरी बनायी ?

आप सोचकर देख लीजिये कि जिन एंकरों ने मरते मरीजों के मुंह में भी माइक डालकर आपको कोरोना का कवरेज दिखाया है और जो एंकर हीरोइनों के ऊप्स मुममेंट तक के शॉट दिखाने से गुरेज नहीं करती, उन एंकरों को ये भनक तक नहीं लगी कि कोई ऐसी दवा का प्रोसीजर चल रहा है जो कोरोना के लिये सरकार अप्रूव करने वाली है !

ये तो हो ही नहीं सकता कि इतनी लम्बी प्रक्रिया वाली चीज़ की इन्हे भनक तक न लगे. हांं, ऐसा तभी संभव है जब सरकार चुपचाप एकदम से इस दवा को गुप्त रूप से मंजूरी दी हो. अब इसमें सरकार को या मोदीजी को क्या फायदा हुआ है ? ये तो मोदीजी या अमित शाह ही बता सकते हैं.

मेरी नजर में इस दवा से बढ़िया तो सरकार द्वारा बनायी जा रही जेनरिक दवाये हैं, जो फ्री तो है ही साथ में बढ़िया असर भी दिखा रही है. और उन्हीं जेनरिक सरकारी दवाओं के चलते भारत में कोरोना का रिकवरी रेट 50% तक है. और ये मैं नहीं बल्कि खुद मोदीजी ने कई बार कहा है. और ऐसा होने के बाद भी सरकार ने इसे जिस तरह आनन -फानन मंजूरी दी है, उससे लगता है कि कोई न कोई छुपा रहस्य है जो अभी प्रकट नहीं हो रहा ?

अब ये तो स्पष्ट ही है कि जिस तरह ये दवा चमत्कार की तरह रातों-रात बाजार में आयी है, उससे इस दवा कम्पनी को करोडों अरबों का फायदा होने वाला है. क्योंकि कोरोना से डरे मरीजों पर ‘डूबते को तिनके का सहारा’ वाली कहावत इस दवा के रूप में चरितार्थ होगी. वैसे भी पिछले 6 महीने में दुनियाभर की मेडिकल प्रोडक्ट बनाने वाली कम्पनियो ने मेडिकल एसेसरीज से ही दुनिया की एक चौथाई मुद्रा को अपनी तिजोरियों में भर लिया है.

और इसका अंदाज आप इस बात से लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में सिर्फ कोरोना पर्पज का जंक ही रोजाना टनों में निकल रहा है और उसे डिस्पोज करने के लिये किसी भी देश के पास न तो कोई उम्दा प्लान है और न ही जगह. बाद में यही जंक अनेकानेक बीमारियों और दूसरे बेक्टेरिया और वायरस उत्पन्न करने का कारण भी बनेगा, जिससे ये दवा कम्पनियांं फिर से पैसा बनायेगी.

आप और हम कोरोना के वैक्सीन का इन्तजार कर रहे हैं जबकि सच्चाई ये है कि स्मॉल पॉक्स के अलावा आज तक विश्व में किसी भी वायरस द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी किसी भी वैक्सीन की वजह से समाप्त नहीं हुई है. पिछली सदी में स्पेनिश फ्लू की तुलना आज के कोरोना से की जा सकती है क्योंकि उसने भी कोरोना की तरह ही त्राहिमाम मचाया था लेकिन आज तक किसी वैज्ञानिक या डाक्टर को स्पेनिश फ्लू के अचानक आने और लुप्त हो जाने का कारण पता नहीं है, जबकि कोरोना के विषय में पूरी दुनिया सब जानती है !

वेक्सीन का ये धंधा इसलिये फल-फूल रहा है क्योंकि उसे बेचने के लिये पहले आपको खुब डराया जाता है, बाद में उसी डर से बाज़ारवाद खड़ा किया जाता है ताकि वे बड़ी बड़ी कम्पनियांं जो रिसर्च में पैसा लगाती है, वो आपकी जेबों को खाली करवाकर फिर से अपनी तिजोरी भर सके.

आपको ज्ञात होगा किसी टाइम में फ्लू को भी महामारी बताकर आपको डराया गया ताकि उसका बाजार बनाया जा सके, फिर उसकी वेक्सीन उतारी गयी. लेकिन क्या कोई मुझे बता सकता है कि जब आज सबसे ज्यादा वैक्सीन फ्लू की ही बिकती है (ये एक बार नहीं आपको हर वर्ष लगवानी पड़ती है) तो फ्लू आज तक खत्म या कम क्यों नहीं हुआ ?

खत्म या कम होने की बात तो जाने दीजिये फ्लू से होने वाली मौतें भी कम नहीं हुई लेकिन वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने इससे खूब पैसा बनाया !

ज्यादातर वैक्सीने वही कम्पनियांं बनाती है जो रिसर्च में पैसा लगाती है अर्थात ये शुद्ध धंधे के नियम पर चलती है, पहले इन्वेस्टमेंट फिर प्रॉफिट. अतः एक बात आप अपने जहन में बिठा लीजिये कि कोरोना की वेक्सीन अगर आयी तो उसे भी आपको हर तिमाही अथवा छमाही रूप से लगवानी पड़ेगी. इसीलिये पहले से ही अपने सालाना खर्च बजट को बढ़ा लीजिये और उसमें इस वैक्सीन को रेगुलर खर्च के रूप में जोड़ लीजिये क्योंकि इसका एक और बाजार आपकी जेब पर जबरन बांधा जा रहा है. इसीलिये तो कहा गया था कि आप कोरोना के साथ जीना सीख लीजिये !

हर्ड इम्युनिटी के चक्कर में अपने दिमाग का दिवाला मत निकालियेगा क्योंकि ऐसी किसी भी हर्ड इम्युनिटी वाली स्थिति के लिये पूरी आबादी का कम से कम 60% संक्रमित होना जरूरी है (तो क्या आप ऐसा चाहेंगे कि भारत के 75 से 80 करोड़ लोग इस वायरस से संक्रमित हो और उनमें से 15 से 20 करोड़ लोग मर जाये ? क्योंकि हर्ड इम्युनिटी वाली स्थिति तो तभी बनेगी !

और मेरे इतना लिखने के बाद भी आपको ये लगता है कि फेविपिरवीर दवा इसका इलाज है तो आप शौक से एक कोर्स ले लीजिये, मगर ध्यान रखियेगा कि इसका एक कोर्स 14 दिनों का है. और साथ ही ये भी ध्यान रखियेगा कि इस दवा के सॉल्ट वही है जो किसी दूसरी दवाओं में है. (नयी रिसर्च भी नहीं है बल्कि चीन और जापान जैसे पूर्वी एशियाई देशों में इन्फ्लूएंजा के मरीजों को पहले से दी जा रही एक एंटीवायरल दवा है, कोरोना का इलाज नहीं).

डीसीजीआई ने इस दवा को मंजूरी कैसे दी शायद इसका खुलासा मोदीकाल में तो होगा ही नहीं, लेकिन एक और तथ्य आपको बता देता हूंं कि सीएसआईआर के डीजी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि : फेवीपिरवीर का ट्रायल डेढ़ महीने में पूरा होने की संभावना है, जो 1,000 रोगियों पर होगा. अर्थात ग्लेनमार्क पूरे भारत के 10 प्रमुख सरकारी और निजी अस्पतालों से नामांकित रोगियों के साथ इसका तीसरे चरण का परीक्षण कर रहा है. और उन 1000 हजार मरीजों को ये भी नहीं पता होगा कि उन्हें गिनीपिग बना कर उन पर लैब टेस्ट किया जा रहा है !

अब सबसे अहम् बात जब अभी तक इस दवा का तीसरे चरण का ट्रायल ही हो रहा है तो डीसीजीआई ने इसे बेचने की मंजूरी कैसे दी ? ध्यान से पढ़ लीजियेगा – ‘फेवीपिरवीर का पेटेंट अब एक्सपायर हो चुका है’ और ये एक पुरानी दवा थी जो बहुत ही सस्ती हुआ करती थी, मगर अब कोरोना के नाम से इसका पेटेंट लिया जायेगा और महंगे दामों में बेचीं जायेगी.

103 रूपये की वेल्यू शायद आपके लिये मायने न रखती हो मगर 103 रूपये की अहमियत उस आदमी से जरूर पूछ लीजियेगा जो जीतोड़ मेहनत करके पैसे कमाता है, मगर फिर भी उसके परिवार को महीने में 15-20 दिन एक बार ही खाना नसीब होता है और बाकी दिन भूखे रहकर गुजारा करना पड़ता है.

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