अपने आवास के नष्ट होने पर उदास बैठा एक कोआला, ऑस्ट्रेलिया
14वीं शती में मंगोलों ने क्रीमिया के फियोदोशियाई लोगों से युद्ध करते हुए उनके नगर में प्लेग से संक्रमित शव फेंक दिए थे, इससे फियोदोशिया में प्लेग फैल गया. जहांं से पूरा यूरोप इसकी चपेट में आ गया. ब्लैक डेथ के नाम से प्रसिद्ध इस घटना में करोड़ों लोग मरे थे. ऐसी ही एक घटना 18वीं शती में हुई. पेन्सिलवेनिया के नेटिव अमेरिकनों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था. अंग्रेजों ने उन्हें शांतिवार्ता के लिए आमंत्रित किया और भेंटस्वरूप कुछ कम्बल दिए. उन कंबलों में चेचक के वायरस थे, जिससे नेटिव्स में चेचक फैल गया.
इतिहास में शत्रुओं पर संक्रामक रोगों द्वारा आक्रमण करने के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं. प्रचलित रूप से इसे बायोलॉजिकल वारफेयर कहा जाता है. 20वीं शती में विज्ञान के तेज विकास ने ऐसे वारफेयर की बहुत-सी तकनीकियों को जन्म दिया. पहले विश्व युद्ध में जर्मनी ने अपने शत्रु पक्षों में एन्थ्राक्स जैसे खतरनाक बैक्टीरिया का संक्रमण फैला दिया था. अन्य राष्ट्र भी बायो-वार की तकनीकियांं विकसित करने में लगे हुए थे.
इन घटनाक्रमों ने पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बायोलॉजिकल वारफेयर का नियमन करने को प्रेरित किया. इसका परिणाम 1925 के जिनेवा प्रोटोकॉल के रूप में सामने आया. इसके अंतर्गत युद्ध में बायोलॉजिकल और केमिकल हथियारों का प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया गया था, परन्तु कई राष्ट्र इस दिशा में अनुसंधान करते रहे, जिनमें जापान सर्वप्रमुख था.
जापानियों ने प्लेग, एन्थ्राक्स, हेपेटाइटिस और चेचक जैसे अनेक संक्रमणों को हथियार के रूप में उपयोग करने की तकनीकियांं खोजीं. जापान की बायो-वार तकनीकियों से घबराकर दूसरे राष्ट्र भी इस दिशा में तेजी से कार्य करने लगे, इनमें अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी और सोवियत रूस अग्रणी थे.
दूसरे विश्वयुद्ध में जापानियों ने कई बार बायोलॉजिकल हथियारों का प्रयोग किया. उन्होंने चीन में कीड़ों के माध्यम से प्लेग और कॉलरा का संक्रमण फैला दिया था, जिसमें लाखों लोग मारे गए थे. जापान की अमेरिका पर भी बायो-आक्रमण करने की योजना थी. इस योजना का नाम ‘ऑपरेशन चेरी ब्लॉसम्स एट नाइट’ रखा गया था, परन्तु इसके क्रियान्वन से पहले ही अमेरिका ने जापान पर परमाणु बम गिरा दिया इसलिए जापान को अमेरिका के सामने समर्पण करना पड़ा.
शीतयुद्ध काल में अमेरिका और सोवियत रूस में बायो-वार तकनीकियों को लेकर कड़ी प्रतिस्पर्धा हुई. इसके प्रभाववश अन्य राष्ट्र भी बायो-हथियार बनाने के प्रयास करने लगे. विश्व भर के चिंतकों ने इस प्रतियोगिता के दुष्परिणामों को रेखांकित करके इसके अंतर्राष्ट्रीय नियमन के पक्ष में जनमत तैयार किया, इसके फलस्वरूप एक अंतर्राष्ट्रीय ‘बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन’ पर सहमति बनी, जिसे 1975 में लागू किया गया. इसके अंतर्गत बायोलॉजिकल हथियारों के विकास, उत्पादन और संग्रहण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
आवास नष्ट होने पर राक्षसों से ही सहायता मांंगता एक भयभीत ओरंगउटान, बोर्नियो
बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन पर अफ्रीका के छः राष्ट्रों, इजराइल और तीन द्वीप-राष्ट्रों के अतिरिक्त अन्य सभी राष्ट्रों ने हस्ताक्षर कर दिया है परन्तु यह कन्वेंशन सदस्य राष्ट्रों के स्वैच्छिक संयम पर निर्भर है. बायोटेक की प्रगति ने इसके नियमों का उल्लंघन सरल बना दिया है. बायो-हथियार बनाने वाले केन्द्रों को औषधि या वैक्सीन उत्पादन केंद्र के रूप में दिखाना कठिन नहीं है.
तकनीकी विकास से बायोटेक्नॉलोजी इतनी सुगम हो गई है कि सीमित संसाधनों से भी बायो-हथियार बनाए जा सकते हैं. यदि कौशल हो तो राष्ट्र ही नहीं, अपितु स्वतंत्र संस्थाएं, आतंकी संगठन और यहांं तक कि कोई व्यक्ति भी इन्हें बना सकता है. उदाहरणार्थ, अलकायदा द्वारा एन्थ्राक्स बैक्टीरिया आधारित हथियार बनाने के प्रयास किए जा चुके हैं.
पिछले साल अमेरिका में एक पैनडेमिक एक्सरसाइज आयोजित की गई थी. इसमें एक काल्पनिक आतंकी समूह ने अमेरिका में वायरस फैला दिए. इन वायरसों को बायोटेक की सहायता से अत्यधिक संक्रामक और प्राणघातक बना दिया गया था. इस संक्रमण में करोड़ों लोग मारे गए और अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई. यह एक सिमुलेशन एक्सरसाइज थी, परन्तु कोरोना संक्रमण के प्रभावों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि बायो-हथियारों से ऐसा विध्वंस संभव है.
बायोटेक्नोलोजी का नियमन कठिनतर होता जा रहा है, क्योंकि इसमें सहायक तकनीकियांं चौथी औद्योगिक क्रांति के अंतर्गत तेजी से विकसित हो रही हैं. उदाहरणार्थ, मशीन लर्निंग से पैथजनों के संभावित म्यूटेशन्स का पता लगाना संभव है. इसका उपयोग घातक बायोलोजिकल हथियार बनाने में किया जा सकता है. इसी प्रकार, जीन एडिटिंग में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग संभव है, जिसके बड़े विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं.
इस समय कोरोना संक्रमण सारे संसार में फ़ैल चुका है. कई विश्लेषक इस महामारी को एक बायोलॉजिकल आक्रमण मान रहे हैं. बहुत से लोग इस अनुमान का खंडन भी कर रहे हैं. संभवतः हम इसकी वास्तविकता कभी नहीं जान पाएंगे, परन्तु इतिहास का स्पष्ट संदेश है कि मनुष्य अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी सीमा तक पतित हो सकता है. इस पतन के क्रम में एक स्तर बायोलॉजिकल हथियारों के प्रयोग का भी है.
लॉकडाउन में उद्योग-धंधे बंद होने से अपने घर लौटते बेरोजगार लोग, भारत
भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का अनुगामी बनने के स्थान पर स्वदेशी विज्ञान और सुरक्षा तंत्र को विकसित करना अपरिहार्य है. विश्व का नियमन हमारे अधिकार में नहीं है, किन्तु अपने सुरक्षातंत्र को सुदृढ़ किया जा सकता है. आगामी भविष्य में मशीन लर्निंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बायोटेक जैसी विधाओं का ही प्रभुत्व होगा. भारत को अपने मानव संसाधन को इन विषयों में उन्नत बनाना होगा परन्तु इसके लिए हमारे वर्तमान नेतागण सर्वथा अनुपयुक्त हैं. इनसे तो साधारण समस्याओं का समाधान भी नहीं होता है. यदि राष्ट्र का संचालन इनके सहारे ही रहा तो भविष्य में स्थितियां बिगड़ती चली जाएंंगी. भारतीय चिंतकों को इस दिशा में गंभीरता से विचारने की आवश्यकता है.
लगभग बाईस साल पहले इंडोनेशिया के घने जंगलों में आग लगा दी गई थी, इसमें वहांं के शासन की मूक सहमति थी. इंडोनेशियाई राजनेताओं को कृषि और दूसरे उद्योगों के विस्तार का यही उपाय सूझा था. उस वनाग्नि के कारण वहांं से अनगिनत पशु-पक्षियों को भागना पड़ा, उनमें सैकड़ों चमगादड़ भी थे, जो भोजन और आवास की खोज में उड़ते हुए मलेशियाई गांंवों में जा पहुंंचे. कुछ दिनों के बाद वहांं एक महामारी फैल गई, जिसे निपा वायरस संक्रमण के नाम से जाना गया. जांंच करने पर पता चला कि उस महामारी का कारण मनुष्यों का चमगादड़ों से अनावश्यक संपर्क था.
सार्स, इबोला, जिका, हंता और मलेरिया जैसे अनेक घातक संक्रमणों के प्रसार की कहानी भी निपा के जैसी ही है. इन पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि इनके प्रसार का मुख्य कारण जंगलों और जैव विविधता का विनाश है. कोविड-19 के संबंध में भी ऐसे ही संकेत मिले हैं.
वन्यजीवों के शरीर में अनेक प्रकार के वायरस और बैक्टीरिया आदि रहते हैं. ये पैथजन उन्हें हानि नहीं पहुंंचाते, क्योंकि करोड़ों वर्षों के उद्विकास से उनमें साहचर्य स्थापित हो गया है, परंतु ये पैथजन मनुष्य के लिए प्राणघातक हैं. वनों के नष्ट होने से वन्यजीव इधर-उधर भटकते हैं, जिससे मनुष्य और वन्यजीवों में अवांछनीय संपर्क बढ़ता है. यह स्थिति वन्यजीवों के शरीर में रह रहे पैथजनों को मानव शरीर में आने का अवसर देती हैं.
पारितंत्रों में मनुष्य की अनुचित गतिविधियों से जैव विविधता का नाश होता है. जैव विविधता मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा तंत्र के रूप में कार्य करती है. यह संक्रामक रोगों समेत अनेक संकटों से मनुष्य की रक्षा करती है परन्तु मानवजनित कारणों से जीवों की सैकड़ों जातियांं नष्ट हो चुकी हैं. अर्थात् मनुष्य अपने निःशुल्क एवं सशक्त सुरक्षा तंत्र को स्वयं ही नष्ट करने में लगा है.
मांंस उद्योग भी इस आग में घी का काम कर रहा है. अनेक महामारियांं मांंस भक्षण और इसके व्यापार के लालच का ही परिणाम हैं. अनेक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि मांंस उत्पादन केंद्रों का वातावरण पैथजनों को म्युटेट होकर शक्तिशाली होने की सुविधा प्रदान करता है. इन म्युटेट होते पैथजनों के नए-नए रूपों से सुरक्षित रहना बड़ा कठिन है.
शोधकर्ताओं ने राजनेताओं को बार-बार चेताया है कि पर्यावरण में असंतुलन पैदा करने वाली जीवनशैली संपूर्ण मानवजाति के लिए घातक सिद्ध होगी. रिकार्ड्स के अनुसार 1980 से लेकर अब तक लगभग 15 हजार महामारियांं फैल चुकी हैं. स्टडीज में ये भी स्पष्ट हुआ है कि पहले की तुलना में इन संक्रमणों की संख्या बढ़ती जा रही है. इनमें से अधिकांश घातक महामारियों का संबंध पर्यावरण का नाश करने वाली जीवनशैली से है.
सैकड़ों शोधपत्रों, सुझावों और चेतावनियों के बाद भी राजनेताओं की कर्तव्यपरायणता ऐसी है कि वनों और जीव-जंतुओं के विनाश की गति बढ़ती जा रही है. प्रायः ये कार्य शासन द्वारा प्रायोजित होते हैं. अमेजन वनों की आग और ऑस्ट्रेलियन बुशफायर ऐसे ही षड्यंत्रों का परिणाम हैं.
मरुस्थलों में बदलती भूमियांं, वायु में बढ़ते अवांछनीय तत्त्व, प्लास्टिक और विषैले रसायनों से भरी नदियांं और विलुप्त होते जीव ही हमारी सभ्यता की सर्वप्रमुख उपलब्धियांं जान पड़ती हैं. यदि ऐसे ही चलता रहा तो पूर्वगामी सभ्यताओं की तरह इस सभ्यता का भी नाश हो जाएगा. जिन्हें भी अपने प्रियजनों की चिंता है, उनकी बुद्धिमानी इसी में होगी कि वो अपने नेताओं को पर्यावरण के संतुलन पर केंद्रित राज्यनीतियांं लागू करने के लिए विवश करें. यही आगामी संकटों के समाधान का एकमात्र उपाय है.
- सिद्धार्थ सिंह
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