सरकारी आंंकड़े कहते हैं कि गोदामों में 90 लाख टन अनाज का स्टॉक है, जो कि बफर स्टॉक का तीन गुना है. इसमें 39 लाख टन गेहूंं है, करीब 28 लाख टन चावल है और 23 लाख टन धान है..बफर स्टॉक यानी सूखा, बाढ़, अकाल जैसी मुसीबतों के समय काम आने वाला भंडार. इतना ही नहीं अभी रबी की बंपर फसल आने वाली है, जिसे रखने के लिए न किसानों के पास जगह होगी और न सरकार के पास. किसानों की मदद के लिए सरकार को समर्थन मूल्य में अनाज तो ख़रीदना ही पड़ेगा, तब वह क्या करेगी ? क्या वह इस अनाज को खुले में सड़ने के लिए छोड़ देगी ? प्रस्तुत है अरुणांश बनर्जी का लेख.
SWARN India Foundation ने सांख्यिकी विशेषज्ञ, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रवीन्द्रन के नेतृत्व में एक रिपोर्ट प्रकाशित किया है. यह रिपोर्ट देश के विभिन्न हिस्सों में लॉक डाउन के कारण फंसे हुए मजदूरों की वास्तविक स्थिति के ऊपर है. इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए देश के विभिन्न हिस्से में फंसे हुए लगभग 12,000 मजदूरों के बीच सर्वे कराया गया. इन मज़दूरों ने जो कुछ बताया वही हाल उनके आस-पास रह रहे अन्य लाखों करोड़ों मज़दूरों का हाल है.
इस रिपोर्ट में जो पाया गया वह भयावह है. आज विभिन्न शहरों में फंसे हुए मजदूरों में से 96% मज़दूरों को कोई सरकारी राशन नहीं मिल पा रहा है, 78% लोगों के पास सिर्फ 300 या 300 से कम रुपए बचे हुए हैं, 50% लोगों के पास सिर्फ 1 दिन का राशन मौजूद है और 72% लोगों के पास 2 दिन का राशन मौजूद है.
इसी रिपोर्ट में और भी पाया गया है कि विभिन्न मालिकों के पास काम कर रहे मजदूरों को उनका बकाया वेतन नहीं मिल पाया है या तो मालिकों का फोन स्विच ऑफ बता रहा है या फिर वे मजदूरी दे पाने में असमर्थता जता रहे हैं. सिर्फ 9% लोगों को ही मजदूरी के रूप में कुछ पैसा मिला है. पता चलता है स्थिति कितना विकट है !
आप एक बार खुद कल्पना करके देखिए. एक अनजान शहर में आप फंसे हुए हैं, आपके पास पैसा नहीं है, घर में राशन नहीं हैं, सरकारी मदद या सुविधा नदारद है, बाहर निकलने से ही पुलिस की मार पड़ रही है, घर मे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। इस स्थिति में आप या हम होते तो क्या करते ? सोचकर ही रूह कांप उठती है.
मुंबई में किसने भीड़ इकट्ठा की, किसने साजिश रचा इस बात पर न्यूज़ चैनल वाले लगातार डिबेट करवा रहे हैं. और तो और स्टेशन के पास मस्जिद होने के कारण इसे सांप्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की गई. लेकिन इस भीड़ के इकट्ठा होने के पीछे जो जो मूल सवाल है इसको दरकिनार कर दिया जा रहा है और वह है ‘भूख’, और जिंदा रहने की स्वाभाविक प्रवृत्ति. इस विषय पर कहीं कोई डिबेट नहीं दिख रहा है.
2 दिन पहले ही देश के सबसे जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ. अभिजीत बनर्जी और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने एक साथ इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा. जिसमें उन्होंने कहा कि ‘यह सरकार लॉक डाउन की परिस्थिति में आपराधिक लापरवाही बरत रही है.’
जहां अमेरिका ने अपनी जीडीपी का 10% कोरोना से मुकाबले के लिए, जापान ने अपनी जीडीपी का 21% कोरोना से मुकाबले के लिए लिए खर्च कर चुका है, वहीं भारतवर्ष अपनी जीडीपी का मात्र 0.9% ही खर्च करने का ऐलान किया है. यह भी पाया गया कि मोदी सरकार ने कोरोना पैकेज के रूप में जिस रकम की घोषणा की है, उसमें भी विश्लेषण करके देखा जाए तो 40% से भी ज्यादा हिस्सा पूर्व घोषित, पूर्व निर्धारित खर्च है जिसे कोरोना पैकेज के रूप में दिखा दिया गया है.
सिर्फ 60% ही कोरोना पैकेज है अर्थात आंकड़ा लगभग जीडीपी का 0.5% है. कितनी अमानवीय सरकार है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है. इसीलिए आज देश भर में हाहाकार है. डॉक्टर, नर्स रेनकोट और प्लास्टिक काटकर पीपीई के रूप में पहन रहे हैं. इन सम्माननीय अर्थशास्त्रियों का कहना है ‘अभी-अभी देश के जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया करानेके लिए 20 करोड़ क्विंटल अनाज के वितरण की आवश्यकता है.’
देश में अभी फिलहाल एफसीआई के गोदामों में 90 करोड़ क्विंटल अनाज मौजूद है. नई फसल आ रही है, अनाज रखने की जगह नहीं है, गोडाउन में अनाज चूहे खा रहे हैं, पर सरकार अब भी देश के अनाज भंडारों को गरीबों के लिए पूरी तरह से खोल नहीं दिया है. सरकारी घोषणा वैसे भी बहुत कम है और जो घोषणा हुई है वह भी कागज पर सिमट कर रह गई है.
किसान सम्मान निधि योजना के बारे में सरकार कह रही है कि सभी लाभुकों ( लगभग 9 करोड़) को 2000 रुपए आगामी 3 महीनों के लिए दे दिए गए हैं परंतु योजना का वेबसाइट बता रहा है कि 50% लोगों के पास भी ये नहीं पहुंचा है. सरकार झूठ पर झूठ बोल रही है.
रिपोर्ट आई है कि भारतीय रेल लॉक डाउन से पहले प्रधानमंत्री से कहा था कि हमें 1 दिन का समय दीजिये स्पेशल ट्रेन चलाकर सबको घर पहुंचा देंगे. परंतु पीएमओ ने ना कर दिया. दुनिया के विभिन्न देशों में लॉक डाउन हुआ परन्तु 4 घंटे की नोटिस पर कहीं भी लॉक डाउन नहीं हुआ.
लॉक डाउन ज़रूरी था पर भारत जैसे विशाल और घनी आबादी वाले देश में लॉक डाउन बिल्कुल किसी तैयारी के बगैर, पूर्व सूचना के बगैर किया गया. देश में पहला कोरोना मरीज़ 28 जनवरी को पाया गया था..सरकार ने मार्च के अंतिम सप्ताह में लॉक डाउन किया. क्या इतने लंबे समय में 2 दिन की पूर्व सूचना देकर लॉक डाउन नहीं की जा सकती थी ? अवश्य ही की जा सकती थी.
सभी देशों में राष्ट्र के प्रधान या उनके प्रतिनिधि रोज़ प्रेस से मुखातिब हो रहे हैं, सरकारी पहलकदमी के बारे में बता रहे हैं और प्रेस के कठिन सवालों का जवाब देने की कोशिश कर रहे हैं. यूट्यूब में देखा जा सकता है कैसे अमरीकी प्रेस डोनाल्ड ट्रम्प को कठिन सवालों के घेरे में डालकर नेस्तनाबूद कर रहा है.
उन्हें या तो संतोषजनक जवाब देना पड़ रहा है अथवा अधूरे काम को पूरा करने का वायदा करना पड़ रहा है. यही तो है लोकतंत्र का न्यूनतम शर्त. और हमारे देश में देखिये, प्रधानमंत्री कभी प्रेस से मुखातिब होते नहीं और यदि फेसबुक ये व्हाट्सएप्प के ज़रिए कोई सवाल उठाए तो भक्त और आईटी सेल वाले मारने को दौड़ रहे हैं, क्या यही लोकतंत्र है ? यही तो वक्त है सरकार से सवाल पूछने का.
माननीय प्रधानमंत्री जी देश के अलग-अलग हिस्सों से भूख और गरीबी के कारण मौत की खबर आ रही है. अभी भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है, अविलंब देश के अनाज भंडार को खोल दे, हर सरकारी स्कूल, हर आंगनवाड़ी केंद्र से भोजन और राशन मुहैया कराने की व्यवस्था करें, वरना बहुत देर हो जाएगी. कोरोना मरीजों से 10 गुणा ज़्यादा लोगों की मौत सिर्फ भूख से होगी. ऐसा होने पर इतिहास कभी आपको माफ नहीं करेगा.
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