तीन घटनाएं हुई पिछले डेढ़ हफ्ते में. तमिलनाडु के मुख्य सचिव के. षणमुगम ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि ‘तमिलनाडु सरकार ने चीन को एक लाख टेस्टिंग किट का आर्डर दिया था, जिससे अपने राज्य में टेस्टिंग प्रक्रिया को शीघ्रता व गति दी जा सके क्योंकि केंद्र की तरफ से आपूर्ति में देरी हो रही है. चीन से उनके एक लाख किट के ऑर्डर के जवाब में 50 हजार किट की पहली खेप का कन्साइनमेंट भेजा गया, जो तमिलनाडु नहीं पहुंचा. खबर है कि वह अमेरिका पहुंच गया.’
ब्रटिश अखबार इंडिपेंडेंट में छपा कि फ्रांस ने चीन को 2 लाख मास्क किट का आर्डर दिया, जिसकी कन्साइनमेंट चीन से चली और बीच रास्ते में गायब हो गयी. फ्रांस के मुताबिक वह कन्साइनमेंट फ्रांस के बजाए अमेरिका पहुंच गया.
3 अप्रैल के इंडिपेंडेंट अखबार के ही अनुसार 5 लाख पीपीई किट का आर्डर जर्मनी की सरकार ने चीन को दिया. जर्मनी का ये आर्डर थाईलैंड के हवाई अड्डे से गायब हो गया. ये पीपीई का कन्साइमेन्ट भी अमेरिका पहुंच गया.
इन तीन खबरों से बाकी बहुत कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं किंतु यह प्रमुखतम है कि अमेरिका अपने यहां फैल चुकी महामारी से लड़ने के लिए कितना डेस्परेट है, प्रतिबद्ध है. वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है और इसमें यदि भारत को, हैड्रोक्लोरोक्विन के लिए दी गयी धमकी को भी जोड़ लें, तो अमेरिका के किसी भी हद तक जाने का अंदाजा लगाया जा सकता है.
निश्चित ही इसमें यह तथ्य भी शामिल है कि पूरे विश्व में आंकड़ों में सर्वाधिक संक्रमित भी अमेरिका में ही हैं, जो लगभग 6 लाख के करीब पहुंच चुके हैं और मरने वालों की संख्या भी सर्वाधिक अमेरिका से ही है. इसमें शुरू में अमेरिकी प्रशासन, जिसमें राष्ट्रपति ट्रम्प ही प्रमुख हैं, द्वारा बरती गयी घोर लापरवाही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है. ट्रम्प शुरू में इसे गम्भीर मानने को तैयार नहीं हुए. फिर इसे ‘चीनी वायरस’ कह कर मुद्दे का राजनीतिकरण करते रहे और चुनावी लाभ के हिसाब से ही मुद्दे को देखते रहे। जब आपदा व्यापक हो गयी तब जाकर गम्भीर हुए.
अब प्रधानमंत्री के भाषण को याद करें, जिसमें 25 मिनट के भाषण में मात्र दो प्रमुख सूचनाएं थी। एक थी, लाकडाउन की अवधि 3 मई तक बढ़ा दी गयी है और दूसरी थी, 20 अप्रैल को समीक्षा के पश्चात हॉट स्पॉट अर्थात, सर्वाधिक प्रभावित के चयन के आधार पर कुछ ढील प्रतिबन्धों के साथ दी जा सकती है. इसके अतिरिक्त गरीब मजदूरों की चिंता से लेकर सप्तपदी तक कोई भी बात महामारी के प्रति गम्भीरता, चिंता, संवेदनशीलता प्रकट करने के बजाय प्रवचन ही अधिक थे, जिसके लिए हमारे देश में हजारों साधु, संतों, मौलवियों, पादरियों की पहले ही कमी नहीं है.
प्रधानमंत्री अपनी पीठ थपथपाने और जनता को उसके कर्तव्य समझाने के लिए ही नहीं होता, खासकर ऐसे समय में जब महामारी का फैलाव बढ़ता जा रहा है साथ ही आम जन की दुश्वारियां भी, जिसकी खबरें चारों तरफ से हैं. किंतु प्रधानमंत्री उनको सम्बोधित करने के बजाय आईटी सेल को कंटेंट ही दे रहे हैं. एक शब्द भी देश में फैलाई गई साम्प्रदायिक घृणा पर, भूखी जनता पर खर्च नहीं किया.
देश में वायरस का फैलाव कितना है, किस स्तर तक है, यह तभी जाना जाएगा जब व्यापक पैमाने पर टेस्ट होंगे, जो कि अभी हफ्ते में एक लाख टेस्ट तक पहुंचे हैं जो बाकी देशों की तुलना में जो कुछ भी नहीं है. तब इस खुश फहमी में रहना कि हमारे यहां आंकड़े कम हैं, अमेरिका की तरह ही घातक हो सकता है.
बाबा साहेब डा. अंबेडकर की जयंती थी. प्रधानमंत्री ने उन्हें याद भी किया. अब यह कल्पना करें कि डॉ. अंबेडकर ने भी यदि लोगों की भल मनसाहत पर ही भरोसा करके, बजाय नियम कानून बनाने के, अपील की होती कि अस्पृश्यता छोड़ दें, उत्पीड़न ना करें, सब समान व्यवहार करें इत्यादि-इत्यादि तो देश व समाज आज किस अवस्था में होता ? प्रधानमंत्री ने कल यही किया बजाय ठोस उपायों की चर्चा के सिर्फ जुबानी जमा खर्च के, जिससे ना तो गरीब मजदूरों का पेट भरने वाला है, ना फंसे हुए मुसीबतजदा लोगों को राहत मिलने वाली है.
25 मिनट के सम्बोधन में यह बात भी कही गयी कि हम कोरोना से हुई मौतों को कम रखने में कामयाब रहे हैं अथवा हमारे यहां कोरोना से कम मौत हुई हैं. भले ही समुचित आंकड़ों के अभाव में यह कितना सही है पता नहीं, परन्तु उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यह सही है. किंतु देश में 600 प्रमुख अस्पताल कोरोना के लिये अधिकृत कर दिए जाने के चलते व अन्य प्राइवेट छोटे क्लिनिक बन्द होने से स्वास्थ्य सेवाएं बड़े पैमाने पर बाधित हो गयी हैं, जिससे कोरोना के अतिरिक्त गम्भीर रोगों से ग्रसित लोगों के मरने के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
कुछ स्थानों से जो खबरे हैं वह बहुत चिंताजनक हैं, जहां अन्य मरीजों को अस्पताल लेने को तैयार नहीं हैं. ऐसी स्थिति में हम एक बीमारी से लोगों को बचाने के एवज में दूसरी बीमारी से ग्रसित लोगों की जान दांव पर नहीं लगा रहे ? क्या कल के सम्बोधन में इस पर कोई चिंता या कन्सर्न व्यक्त हुआ ?
अमेरिका में जो हालात आज हैं उसके लिए वहां की नीतियां ही प्रथमतया जिम्मेदार हैं और दक्षिण कोरिया, जर्मनी आदि में जहां कंट्रोल किया जा सका वहां भी उनकी नीतियां ही जिम्मेदार हैं. चुनौती सिर्फ महामारी से हो रही मृत्यु रोक देना नहीं है, भूख से होने वाली मृत्यु भी मृत्यु है. यह भी उतनी ही बड़ी चुनौती है और यह व्यवस्था की पैदा की हुई है. वह भी तब और भी भयानक हो जाता है जब 80 मिलियन टन से अनाज के भंडार भरे हों.
चुनौती बन्दी के कारण बेरोजगार हुए लोग भी हैं. चुनौती बाधित हुई शिक्षा व्यवस्था भी है. चुनौती अर्थव्यवस्था भी है. चुनौती छिन्न-भिन्न किया गया सामाजिक ताना बाना भी है, जिन पर इतने बड़े फैले हुए तमाम तरह की भिन्नताओं से भरे लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री के सम्बोधन में कहीं कोई चिंता नहीं दिखी.
एक बात जरूर अच्छी लगी कि देश के वैज्ञानिकों से उम्मीद की गई कि वे इस महामारी के ‘वायरस’ का टीका बनाने की चुनौती स्वीकारे. शायद ही इससे देश में शिक्षा, तर्क, विज्ञान व वैज्ञानिक चिन्तन विरोधी माहौल (वायरस) पर कुछ असर हो भले ही इन्हीं के अभाव से सम्पुष्ट सम्बोधन में इसका आह्वान था.
- अतुल सती जोशीमठ
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