हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
प्रधानमंत्री मोदी ने 19 मार्च को देश को संबोधित करने के दौरान कंपनियों के मालिकों से ‘आग्रह’ किया था कि वे कोरोना संकट के कारण अनुपस्थित कर्मियों के पारिश्रमिक में कटौती नहीं करें. इस आग्रह के मानवीय पहलू थे और सबने इसे सराहा. अब जब इस आग्रह के लगभग 25 दिन बीत चुके हैं, देखना यह होगा कि कितनी कंपनियों ने प्रधानमंत्री के अनुरोध का मान रखा।
देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा होते ही महानगरों से मजदूरों का महापलायन नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच के आर्थिक संबंधों में हावी तदर्थवाद को तो दिखाता ही है, उसकी अमानवीयता को भी सामने लाता है.
कंपनियों की अपनी समस्याएं भी हैं. उत्पादन ही नहीं तो आमदनी नहीं और जब काम ही नहीं, आमदनी ही नहीं तो काहे का पैसा ? लेकिन, सारी की सारी कंपनियां तो इतनी कमजोर नहीं हैं कि महीने दो महीने की बन्दी में ही अपने कर्मियों को अनाथ होने की फीलिंग करवा दें ? पर,जैसी कि खबरें आ रही हैं, दिहाड़ी ही नहीं, रेगुलर टाइप का काम करने वाले कर्मियों की सुध भी कई कंपनियों के मालिक नहीं ले रहे हैं.
बीते दशकों में ठेका पर काम करवाने की प्रवृत्ति जो बढ़ती गई है उसने कर्मियों को किसी ऊंच-नीच के समय में नियोक्ता की छतरी से महरूम किया है. प्राइवेट स्कूलों को ‘शिक्षा के मंदिर’ मानने की भूल न करें. वे भी मुनाफा कमाने के उपक्रम ही हैं और इन अर्थों में उन्हें भी हम कंपनी ही मानेंगे.
गौर करने की बात यह है कि ये प्राइवेट स्कूल, जो लगभग महीने भर से बंद हैं और आगे भी कुछ महीने बंद ही रहेंगे, अपने कर्मियों के साथ क्या कर रहे हैं ? सरकार ने प्राइवेट स्कूल संचालकों से ‘आग्रह’ किया है कि वे बच्चों की मासिक फीस के लिये अभिभावकों पर अभी दबाव नहीं डालें और कि इसे किस्तों में भी वसूल किया जा सकता है. जाहिर है मोहलत जो मिले, स्कूल फीस तो पूरी की पूरी देनी ही होगी अभिभावकों को. किस्तों में ही सही.
लेकिन, इस बन्दी की अवधि का वेतन अपने कर्मियों को कितने प्राइवेट स्कूल देंगे ? वे स्कूल, जो गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही अधिकतर शिक्षकों की सेवा खत्म कर देते हैं और स्कूल खुलने के बाद फिर सेवा में ले लेते हैं, ताकि छुट्टी के एक डेढ़ महीने का वेतन घर बैठे लोगों को नहीं देना पड़े, वे इस कोरोना बन्दी की लंबी अवधि का वेतन अपने कर्मियों को देंगे ?
भारत की सर्वाधिक शोषित जमातों में प्राइवेट स्कूलों के कर्मियों को भी गिनना होगा. पता नहीं, इनका कोई अखिल भारतीय संगठन है भी या नहीं. होने में ही आश्चर्य है, नहीं होने में क्या आश्चर्य ?
दुनिया में सबसे अधिक अंधेर जिन प्राइवेट उपक्रमों में होता है उनके ‘टॉप टेन’ की सूची बनाई जाए तो भारत के प्राइवेट स्कूल उस सूची में कहीं ऊंची पायदान पर होंगे. वे जितना ही अभिभावकों को लूटते हैं, उतना ही अपने कर्मियों का शोषण भी करते हैं. कुछ अपवाद जरूर होंगे, जिनका मुझे पता नहीं.
तमाम मॉल्स, मल्टीप्लेक्स और व्यावसायिक उपक्रम बंद हैं. लॉक डाउन हटेगा, तब भी इनमें से अधिकतर को अभी लम्बी अवधि तक बंद ही रहना होगा. देखने वाली बात यह है कि ये उपक्रम अपने कर्मियों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं ? कितनों ने बन्दी की इस अवधि में घर बैठे अपने कर्मियों के बैंक एकाउंट में पैसे भेजे हैं ?
यह समय है कि सरकार को देखना चाहिये कि प्रधानमंत्री के उस मनावीय ‘आग्रह’ की किस तरह ऐसी की तैसी हो रही है. श्रम कानूनों के जानकार ही बता पाएंगे कि ऐसी महामारियों या किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा के दौरान कंपनियों के अपने श्रमिकों के प्रति क्या दायित्व हैं ?
हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर कोई कानून होगा भी तो अधिकतर कंपनी मालिक इसका पालन न करने के हर उपाय करते होंगे. श्रमिक वर्ग में व्याप्त त्राहि-त्राहि इसका स्पष्ट संकेत है कि अधिकतर नियोक्ताओं ने आपदा काल आते ही उन्हें निराश्रित छोड़ दिया. उन्हें न सरकार का कोई लिहाज है न कानून, अगर कोई है, तो उसका डर.
विचारकों का मानना है कि कोरोना संकट खत्म होने के बाद अनेक अर्थों में हम बदली हुई दुनिया में होंगे. क्या इन बदलावों का कोई असर नियोक्ताओं और कर्मियों के आर्थिक संबंधों पर भी पड़ेगा ?
आर्थिक उदारवाद के अति उत्साह और अंध निजीकरण की गहरी खाई में डूबते देश और समाज ने अपने श्रम कानूनों को जिस तरह कारपोरेट हितैषी और श्रमिक विरोधी बनाने का सिलसिला चला दिया था, उस पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है. उत्तर कोरोना भारत को अगर यह जरूरत महसूस न हुई तो माना जाएगा कि हमने इस आपदा से मनुष्य बनना नहीं सीखा.
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