रविन्द्र पटवाल, सामाजिक कार्यकर्ता
कई लोग अभी भी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, लेकिन जैसे खबर आती है, उसी के हिसाब से बोल पड़ते हैं. खबरें कभी भी पंथ निरपेक्ष नहीं होतीं, इसे गांठ बांधकर रखना चाहिए.
अब जैसे एक सवाल किसी मित्र ने मुझसे पूछा, ‘शेयर बाजार तो सारी दुनिया में गिर रहा है, कोई अकेले भारत का ही तो नहीं गिरा. इस तरह यदि इस मुद्दे पर भी आप मोदी जी को कोसेंगे, तो सबको लगेगा कि आप तो सरकार विरोधी हो, इसलिये मोदी जी के पीछे पड़े रहते हो. यह आपकी अंध विरोधी मानसिकता को ही दिखाएगा और मोदी को सहानुभूति ही मिलेगी.’
अब इस खबर को समझिये. इसमें आंशिक सच्चाई है और बहुत कुछ गड़बड़ भी है. इसे उलट कर देखते हैं. चीन में आज कोरोना वायरस के शायद 4 केस ही नए देखने को मिले हैं. चीन से कोरोना वायरस का जन्म हुआ. चीन जब इस विपदा से अकेले जूझ रहा था, तो अमेरिका सहित भारत में उनके खान पान, केमिकल हथियारों से लेकर न जाने क्या क्या अफवाह, नस्लवादी घृणा, साम्यवाद के खिलाफ नफरत आदि-आदि खूब फैलाई गई.
चीन ने करीब डेढ़ महीने पहले इसका टीका तैयार कर लिया था लेकिन एक चूक उससे तब हुई थी जब यह महामारी उसके यहांं नई-नई आई थी और उसने इसकी पड़ताल गंभीरता से नहीं की थी लेकिन जैसे ही उसे इसकी गंभीरता का पता चला, उसने बेहद गंभीरता से इस पर राष्ट्रीय स्तर पर काम शुरू ही नहीं कर दिया, बल्कि सारी ताकत उस पर झोंक डाली. दो हफ़्तों में दो अस्पताल हजार-हजार बिस्तर के एक एक हफ्ते में बना डाले.
आज कहा जा रहा है कि इस महामारी का केंद्र यूरोप में बन गया है. इटली में 1 हजार से अधिक मौते हो चुकी हैं.
30 बिलियन डॉलर का सहायता कोष की घोषणा हो चुकी है लेकिन गंभीर रूप से इस महामारी से लड़ने की तैयारी अभी भी नहीं दिखती. ईरान दूसरा देश है, जो 500 मौत के बाद बदहवास खड़ा है. सिर्फ कोरिया को इस मामले में चीन के बाद सराहा जा सकता है.
(ब्रिटिश अर्थशास्त्री जिम ओ नील जिन्होंने “BRICS” नाम पहली बार गढ़ा था, उन्होंने कहा है कि, ‘भगवान का शुक्र है कि कोरोना की शुरुआत चीन में हुई और इसीलिए चीन की सरकार ने समय रहते उस पर काबू पा लिया. यदि यह भारत जैसे जर्जर फटेहाल स्वास्थ्य व्यवस्था वाले मुल्क में पहले आया होता तो हालत कई गुना तक खराब होते.’)
अब आते हैं कोरोनावायरस, शेयर बाजार और भारत की आलोचना के सन्दर्भ में. मेरे विचार से 2012 तक नव उदारवादी अर्थव्यस्था में कुल मिलाकर भारत की हालत फिर भी काफी ठीक बनी हुई थी. उसके बाद मनमोहन सरकार को हम सबने भ्रष्ट बताकर खूब कोसा भी, और इस नव उदारवाद की कलई भी खुलने लगी थी. कांग्रेस अपना समय किसी तरह निकाल रही थी, और उसे इतिहास की सबसे बुरी हार देखने को मिली. हमारे पास अच्छे दिन, 15 लाख, किसान के आंसू पोछने वाला एक नया चमकदार गुजरात मॉडल जोर शोर से 56 इंच के साथ मौजूद था.
इसने 5 साल में देश की असली हालत को छिपाने, और बाहर से खूबसरत दिखाने के ताम झाम जिसे ‘इवेंट मैनेजमेंट’ कहना ज्यादा सही होगा, के प्रबन्धन में सच में पीएचडी की हुई थी.
जब अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत दिखाई जा रही थी, तो वह वास्तव में 4 से नीचे ही थी. इसका हिसाब आपको बाद में ही सही-सही मिल सकेगा (इस पर बहस बाद में हम सब देख लेंगे). आज हमारा लक्ष्य 5% है, जो असल में 2-3% होगा, लेकिन 5% या उससे कम सरकारी आंंकड़ों में नजर आना था. लेकिन कोरोना के चक्कर में प्रोजेक्टेड ग्रोथ भी 3% से अधिक होता नजर नहीं आ रहा है. वास्तविक ग्रोथ तो पहले से ही नेगेटिव में है.
अब बात करते हैं उस मूल सवाल की. जब दुनिया भर में बाजार गिर रहे हैं तो मोदी जी की क्या गलती ?
गलती तो हो चुकी पहले से ही जब उसने एक हेल्दी बच्चे को पहले ही 7 साल से कुपोषित कर दिया. आज जब उसे बाकी के स्वस्थ्य बच्चों से मुकाबला करना होगा, जब सभी प्रभावित होंगे, तो जिन्दा किसके बचे रहने की संभावना होगी ? डार्विन के सिद्धांत को याद करें. सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट.
क्या चीन इस कोरोना वायरस आपदा में अंतिम हंसी हंसेगा ? एक समय था जब दुनिया उस पर हंस रही थी. आज अमेरिका में 50 के करीब लोग मारे जा चुके हैं. ट्रम्प ने भारत यात्रा के खूब मजे लूटे और अपनी पीठ खूब थपथपाने के लिए अपने ख़ास मित्र के देश के पैसे पर इसके इंतजाम करवाए, ताकि नवम्बर में चुनाव जीता जा सके. आज वहांं पर राष्ट्रीय आपदा की तैयारी हो रही है.
चीन के पास टीका तैयार है. टीका बनाने के लिए शोध करना पड़ता है. सैकड़ों ट्रायल करने होते हैं. आज वह टीका 10 हजार में भी दे, तो लोग उसे ब्लैक में बेचने के लिए कई पूंजीवादी मित्र मुनाफे के लिए लपलपा उठेंगे.
खरबों का माल चीन कमा सकता है.
जिन्दा वही रहेगा जो सबसे फिट होगा इस आपदा में या जिसकी अर्थव्यस्था सबसे साउंड होगी. हमारी अर्थव्यस्था अंदर से पहले ही खोखली थी. चीन से माल मंगा कर हम उसकी पैकेजिंग करने को मेक इन इंडिया का नाम देकर भी वोट वसूल रहे थे.
अब उसे एक ही झटके में 3000 अंकों का झटका लगता है. 100 साल के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ, लोग बता रहे हैं. दो घंटे आपको पर्दा गिराना पड़ता है. देश को झूठ दिखाने के लिए आपके पास सुधीर चौधरी और उनके जैसे सैकड़ों चैनल हैं लेकिन ये FDI लगाने वाले लोग बड़े बेरुमव्व्त लोग हैं, वे चमड़ी भी नहीं देखते, सिर्फ पैसे की धार देखते हैं.
बाकी बचा क्या ? वही सूखी गली हड्डियों वाला किसान, मजदूर ही न ? जिसे इस सब तूफ़ान के बाद भाटे में बचा हुआ कीचड़ समेटना होगा, अगले कई दशकों तक.
कई मध्यवर्गीय सपने बिखरकर एक बार फिर से श्रमिकों की केटेगरी में चले जाने को अभिशप्त हैं.
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